शब्दोकें फुल
शब्दोकें फुल
अमृता का काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ आज।
उमरके पंद्रहवे सालमें जो सपना देखा था वो आज जाके पूरा हूआ।
उसके इस सपनेको पूरे होने में चालीस साल लगे।
घरके लिए, घरवालोकें लिए जो सपने देखे थे वो पूरे किये थे उसने।
बचपनसे अमृता प्रितम की चहेती थी वो।
उसकी कहानियां पढते पढते इसके मनमें भी
अंदरकी भावनाओकों काव्यरुप देने का सपना खिल रहा था।
लेकिन उसके मनमे खिलनेवाले शब्दोकों ना वो काव्यरुप दे सकी ना कागजपें कभी उतार सकी।
उसकी भावना, उसके शब्द जाननेवाला कोई मिला ही नही उसे।
उसकी लिखनेकी चाहत कोई समझही नही पाया।
रातकों चाँदके प्रकाशमें जो शब्द सजानेके ख्वाँब वह देखती थी वो सुबह होतेही सुरज के किरणोके के साथ खत्म हो जाता था।
शादीके बाद लिखूँगी ये सोचके हमसफर के साथ संसार बसा लिया।
हमसफर गुणवान,धनवान लेकिन शब्दोसे अजनबी, शब्दोसे दूर भागता था वो।
अमृताके शब्द उसके ह्दय तक पहूँचते ही नही थे।
उसके सपनोका मतलब वो समझ ही नही पाता था।
अमृताने मनके शब्दोकों बाहर आने ही नही दिया।
उनको अंदरही अंदर समीटती गयी वो।
शब्द भी बाहर निकलने के लिए कितना रुकते?
गये एकेक अमृताको छोडके।
उसने भी छोड दिया फिर शब्दोका ख्वाँब देखना।
वो और शब्द जुदा हो गये।
वो शब्दोसे बूने हूए ख्वाँबोको जैसे भूलही गयी।
जीवन की एकेक जिम्मेदारी निभानेमें मशरुफ हो गयी।
घर
संसार
बच्चे
उनकी पढाई
जिम्मेदारीयाँ बढती ही गयी।
घरकी उससे उम्मीदे भी बढती गयी
जिम्मेदारीयाँ निभाते निभाते सालो गुजर गये।
समय खत्म होने लगा।
अब कुछ जिम्मेदारीयाँ कम होने लगी।
एकदुसरे से बँधे धागे ढीले हो रहे ।
शब्द अब फिरसे मनमें लहराने लगे।
बाहर आने के लिए तडपने लगे।
अब वो नही रोक सकी उनको बाहर आनेसे।
मोरके पर जैसे हल्के हल्के होके वो कागजमें उतरने लगे।
भीतर ही भीतर पिंजडे में मानो कैद थे वो और अब पंछियोकी तरह उड रहे खूले आसमानमें।
उसी मुक्त शब्दोसे बनी ये 'शब्दो के फुल' किताब।
कुछ शब्द गुम हो गये।
किसी शब्दका मतलब बदल गया।
किसी शब्दकी यादे धुँधली हो गयी।
कुछ शब्दोका आवेग कम हूआ।
तो किसी याद के लिए शब्दही नही मिले।
इस अमृताके 'शब्दोके फुल' भी पहलेही खिल सकते थे
महक सकते थे।
अगर उसको भी उसी अमृता जैसा इमरोज मिलता।
प्रीती गजभिये
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